Saturday, April 14, 2018

सुकून



सुकून

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हैरान सा परेशान सा,
घर से निकल गया,
सोचा मिल ही जाएगा रास्ता,
जो सभी रास्तों का छोर हो।

मैंने सोचा मेरे ग़मों की सीमा नहीं,
हर जगह ढूंढा पर कहीं भी सुकून नहीं।
फिर स्टेशन की सीढ़ियों से उतरते हुए, काँपते हुए,
फटी सी बुर्शट में खुद को छिपाते हुए,
कोई मेरी तरफ देखने लगा, मानो मैं ही हूँ उसका किनारा।

एकाएक रख दिए मैंने उसके हाथ पर
माँ के दिए परांठे, शायद किसी को तो किनारा मिले,
वो मुस्कुराया, उसके चेहरे की हजार सलवटों पर आराम सा छा गया,
बंजर वसुधा से मिलने मानो सावन आ गया।

वो तेज़ी दिखा रहा था और मैं मंद,
वो अन्न खा रहा था और मैं आनंद,
स्वाद भूख में था, और भूख सुख की,
तृप्त वो भी हो गया, और मेरा दुःख भी।
By- Ravi panwar

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