Sunday, April 22, 2018

ये पूछा मत करो

ये मत पूछा करो

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मुझसे होता न बयाँ, ये पूछा मत करो,
राज दिल में है क्या, ये पूछा मत करो।
रात बनके हवा छू लिया था तुम्हें,
ख्वाब था या हक़ीक़त, ये पूछा मत करो।
देखा तुमको तो ये परेशान हो उठी,
इन आँखों की गुफ्तगू, ये पूछा मत करो।
जब नहीं आए तुम हिचकिया आ गई,
पर आई कितनी दफा, ये पूछा मत करो।
जब जानते हो कहेंगे हम "सुभानअल्लाह",
कैसे दिखते हो तुम, ये पूछा मत करो।
तहजीब इतनी कि मुकर जाते हैं हम,
क्या प्यार है हमसे, ये पूछा मत करो।
चल दिया उठ कर कहाँ ये पूछा तो करो,
कर दूंगा मना कि, ये पूछा मत करो।
मैं तो मिर्ज़ा था सिर्फ तेरा रहनुमा,
क्यों ग़ालिब बन गया, ये पूछा मत करो।

-Ravi Panwar

Thursday, April 19, 2018

वो बंद खिड़की


वो बंद खिड़की....?

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वो बंद खिड़की
वो शाम का समय था ज्यादातर लोग अपने अपने घरो से बाहर निकल रहे थे ऐसा लग रहा था मनो उन सब को उस मतवाली पवन ने बुलाया हो और वो सब एक अपनी प्रीयता से मिलने के लिए जा रहे थे ऐसा लग रहा था मानो एक पल की देरी भी इन्हें एक असहनीय वियोग का अनुभव करा रही हो | में भी उस भीड़ में शामिल हो गया | मै चल तो रहा था  पर मानो ऐसा लग रहा था की पवन मुझे अपने साथ कही ले जा रही हो , में अपने बिना गंतव्य की परवाह किये मैने खुद को उसके हवाले कर दिया |
     अभी कुछ समय भी नही गुजरा होगा कि मुझे पवन के झोंको ने मेरे सपनों से बाहर निकाला | मै अपनी वास्तविक दुनिया में आया , मै खुद के चारों तरफ़ देख रहा था ,एकाएक मेरी नजरें पवन के झोंके का पीछा करते हुए एक खिड़की पर गयी | ऐसा लगा मानो दुनिया थम सी गयी हो ..उसकी वो आँखे |
    पर पवन का इरादा कुछ और ही था उसने अपनी अठखेलिय थोड़ी बड़ा दी और अपने हाथो से उसकी बालों की लटों को सवारने लगी ,ऐसा लग रहा था मानो वो उसके स्पर्श से मुझे चिड़ा रही हो ,उसके बाल हवा में लहरा रहे थे उसके गालों की लाली मुझको रिझा रही थी में कुछ पल के लिए उस पल में खो गया और उस मासूमियत सी सूरत में खो गया ...में उसकी पलकों के उठने का इंतज़ार करता रहा पर शायद वो भी पवन के साथ मिली हुई थी मै उस पल को हवा का एक तोफा समझ कर उसे एक याद के रूप में रख लिया |
       अब तो हर रोज़ उस रोज़ का इंतज़ार होने लगा था खुद को बड़ी मुस्किल से याद रख पा रहा था खुद से खुद की जंग से होने लगी थी अगर आँखे बंद करता तो उसकी बंद पलकें आँखे खोलने न देती और अगर आँखे खोलता तो पल पल बेचेनी हो रही थी आखिर खुद ने खुद से एक समजौता किया खुद को “खुद*” के हवाले कर दिया मेने | पर खुद से खुद को हार कर भी जीता हुआ महसूस कर रहा था
  मै हर रोज़ वहा जाने लगा मुझे वो उसी जगह पर बैठी हुई मिलती है ऐसा लगता था मानो वो भी मेरा इंतज़ार कर रही हो | मै उस पल को कैद कर लेना चाहता था उस पल के साथ खो जाना चाहता था उस अनजानी चाहत को पहचान देना चाहता था मै उसे अपना बनाना चाहता था में उसे रोज़ इसी तरह मिलने लगा पर अब बेबसी बडती जा रही थी उसकी पलकों कि खिड़की कब खुलेगी |
     धीरे धीरे एक महिना गुजर गया | उसकी एक मुस्कराहट हर दुःख दूर कर देती थी उसकी दूरी अब सहन नही होती थी हर पल ख्याल आता था उसकी आँखे कैसी होंगी आँखों की वो नीली हया आँखों को सुकून देती थी जब पवन उसके होठों खो छूके गुजरती थी तो दिल में एक सिरहन सी दौड़ जाती थी फिर खुद उसके होठों को अपने होठों पर महसूस करता और उन बंद आँखों के सपनों में खुद को जीवंत महसूस करता |
        वही शाम का समय था सभी लोग फिर से अपनी प्रेयसी से मिलने जा रहे थे मै भी अपनी प्रेयसी से मिलने जाने लगा, पर आज हवाओ का रुख कुछ बदला बदला सा लग रहा था ऐसा लग रहा था मानो वो मुझे आज ले जाना नही चाहती थी पर में खुद खो रोक न पाया और चलने लगा मन में एक अजीब सी बैचेनी हो रही थी वहां पहुँच कर खुद की नजर उठाने की हिम्मत नही हो रही थी खुद को उसकी नजरों का पीछा करने को कहा और नजरे उस बंद खिड़की पर जाके रूक गयी, दिल को दर्द का एहसास हुआ पर आँखों ने बगावत कर दी खुद को ना रोक पायी और बगावत का नीर उन आँखों से बहने लगा | साँसों के साथ बहता दर्द आँखों से मिल रहा था
    फिर खुद को दिलासा दी और उस मकान की सीड़ियाँ चड़ने लगा ..हर एक पल उस पल की याद दिला देता जब उसकी नज़रों से मिलन हुआ था दिल एक अनहोनी की आहत से घबरा जाता | जब उसके कमरे के दरवाजे के पहुंचा तो उसे खोलने की हिम्मत ना हुई | एक झटके के साथ दरबाजा खोला अन्दर का नजारा एक अनहोनी को बयां कर रहा था सब कुछ खाली था बस एक खाली कुर्सी और एक बैसाखी थी जो अनहोनी का संकेत थी फिर नजर उस बंद खिड़की पर गयी, एक ख़त को देखा ,एक डर के साथ उसे खोला जब उसे पड़ने लगा था आँखों ने एक बार फिर बगावत कर दी|
    “इन आँखों की खता को माफ़ कर देना , पर में उन सपनों को नही खोना चाहती जो तुमने मुझे दिए ...जब तुम्हे पता चलता कि मेरे पैर नही है तो शायद तुम मुझे छोड़ देते इस ख्याल से ही में जा रही हूँ अब तक खुद को तो बचा लिया, पर खुद के अंश को कैसे बचाउंगी |
   मेने इस खिड़की से उस दुनिया को देखा है जो बहुत जालिम है हमें जीने का हक़ देना नही चाहती एक ओर आप प्यार की चाहत करते हो दूसरी ओर हमें जीने देना नही चाहते हो .....उस दुनिया में कैसे कदम रखू एक खौफ से भरी हुई है हर पल उन भेडियों की नजरों से बचना पड़ता है हर पल उन जालिमों का साया पीछा करता है
     तुम्हारी मोहब्बत का डर नही है डर तो उस बात का है की अपनी इस मोहब्बत की निशानी को दुनिया में कैसे लाऊंगी , अपनी उस लाड़ली को इन हैवानों से कब तक बचाउंगी ...उसे इस दुनिया में लाने से डर लगता है”
     इस से आगे पड़ ना पाया ,खुद को खुद की नजरों में गिरा हुआ पाया ऐसा लगा मानो उसकी इन बातों का क्या जबाब देता ...उसके लिए इस बंद खिड़की को कैसे खोल पाता क्युकी में भी इसी भेडियों के समाज का हिस्सा हूँ
     आज उस खिड़की खो खोलना चाहता हूँ उसे इस दुनिया से मिलाना चाहता हूँ उसे बताना चाहता हूँ की एक दिन ये लोग जरूर बदलेंगे | पर एक सवाल उस बंद खिड़की खोलने ने रोकता है
“क्या ये लोग बदलेंगे ...?”   
आपकी राय जरूर.......”वो बंद खिड़की”
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  -अनिल शर्मा

Wednesday, April 18, 2018

भगवान की खोज

भगवान् की खोज......

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भगवान=विश्वास
क्या आपको लगता है कि आप मंदिर मस्जिद या अन्य जगहों पर खोज सकोगे तो मेरा जबाव है नही...क्योकि हम भगवान को इन जगहों पर अपने स्वार्थ या दुःख के समय पर ही याद करते है.तो आपको क्या लगता है कि भगवान को हम स्वार्थ या दुःख के बदले में ,भगवान की कृपा पा सकते है. तो एक बार फिर मेरा जबाव होगा ..नही I हम भगवान को मंदिर मस्जिद या अन्य जगहों पर खोजने की बजाय हम भगवान को लोगो के दिलो में ,उनके प्यार प्यार में ,लोगो की दुःख के समय की गयी सेवा में ,या फिर बड़ो के आशीर्वाद में खोजे तो सायद हमें भगवान तो ना मिले पर सायद हम भगवान की इच्छा जरूर पूरी कर सकते है

भगवान क्या है ?

विश्वास ही भगवान है.
में आपको एक घटना का अनुभव बताता हु......
एक बार एक छोटा बालक घर से दुखी होकर भगवान की खोज में निगल पड़ा .वो अपने घर से थोड़ी दूर ही पंहुचा होगा की उसे पार्क में एक ब्रद्ध महिला दिखाई दी .वो बहुत उदास थी उसके चेहरे के भाव से पता चल रहा था कि वो कितनी दुखी थी कुछ देर उस महिला को देखने के बाद बालक उसके पास गया और उसकी बगल में जाकर बैठ गया.वो बहुत देर तक इसे ही बैठे दोनों ही एक दुसरे से बात नही कर रहे थे बहुत समय बाद जब बालक को भूक लगी तो उसने अपने छोटे से बैग से ब्रेड निकाली और खाने लगा ..बालक ने देखा की महिला उसकी ओर देख रही है तो बालक को लगा की सायद वो महिला भी भूकी है.तो उसने अपनी एक ब्रेड उस महिला को दे दी .महिला के चेहरे पर थोड़ी सी खुसी छा गयी ..बालक को वो मुस्कान बहुत अच्छी लगी इसलिए उसने अपनी एक दूसरी ब्रेड भी उस महिला को दे दी ...इस बार महिला के चेहरे पर ज्यादा खुसी थी और अंत में बालक ने अपने सारे खाने की चीजे उस महिला को दे दी उन्हें खाकर महिला का चेहरा खुसी से खिल उठा ....और बालक उस चेहरे को देखकर बाहुत खुस हुआ और फिर कुछ देर उन्होंने बात की और दोनों अपने अपने घर चले गए ..जब बालक घर पंहुचा तो उसकी माँ ने पूंचा इतनी देर खा थे बालक ने कहा माँ आज मेने भगवान को देखा वो बहुत सुन्दर है और उसने हंस कर मुझसे बात की .....और जब वो ब्रद्ध महिला अपने घर पहुची तो उसके चेहरे की खुसी देखकर उसकी बहु ने पूछा ,माँ जी आज आप इतनी खुस कैसे हो तो उस महिला ने जबाव दिया बेटा ‘आज मेरी मुलाकात भगवान से हुई वो बहुत अच्छा है उसने मुझे अपना खाना दिया उसने मुझसे बात की और एक बात और वो बहुत छोटा है.......
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Saturday, April 14, 2018

सुकून



सुकून

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हैरान सा परेशान सा,
घर से निकल गया,
सोचा मिल ही जाएगा रास्ता,
जो सभी रास्तों का छोर हो।

मैंने सोचा मेरे ग़मों की सीमा नहीं,
हर जगह ढूंढा पर कहीं भी सुकून नहीं।
फिर स्टेशन की सीढ़ियों से उतरते हुए, काँपते हुए,
फटी सी बुर्शट में खुद को छिपाते हुए,
कोई मेरी तरफ देखने लगा, मानो मैं ही हूँ उसका किनारा।

एकाएक रख दिए मैंने उसके हाथ पर
माँ के दिए परांठे, शायद किसी को तो किनारा मिले,
वो मुस्कुराया, उसके चेहरे की हजार सलवटों पर आराम सा छा गया,
बंजर वसुधा से मिलने मानो सावन आ गया।

वो तेज़ी दिखा रहा था और मैं मंद,
वो अन्न खा रहा था और मैं आनंद,
स्वाद भूख में था, और भूख सुख की,
तृप्त वो भी हो गया, और मेरा दुःख भी।
By- Ravi panwar

Wednesday, April 4, 2018

खुद को भुलाकर देखिये तो...


कभी खुद को भुलाकर देखिये तो

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यहाँ हर दिल में प्यार छिपा है
कभी प्यार की नजरो से देखिये तो,

दुसरो की बाहों में भी वही सुकून है
जरा खुद की बाहें खोलिए तो,

सियासत की लाचारी और दुसरो के जख्म,
जरा सीरिया जेक देखिये तो,

कितना सुकून है इंसानियत में,
जरा राजनीति से बाहर आके देखिये तो,

कोई जाती छोटी, या कोई इंसान बड़ा नही होता
ये सब मानवता के चेहरे है बस
जरा अपना कद घटा के देखिये तो,

यहाँ तो हर कोई अपना है
जरा खुद को भुला कर देखिये तो...
..
BY-ANIL SHARMA

अनोखा रिश्ता

अनोखा रिश्ता-1 ---------------------------------------------- शाम का समय था लगभग 7 बजे होंगे ,एक टेबल पर बैठा करन कॉफी पी रहा था चार...