Wednesday, July 25, 2018

मेरे आंगन के पेड़ से


मेरे आंगन के पेड़ से

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अठखेलियाँ खाती, अपने केश बिखराती,
रंग बिरंगे फूलों के गहनों से सजी,
एक लता बेवजह लिपट गई
मेरे आँगन के पेड़ से।
 
कहाँ से निकली पता नहीं,
कहाँ रुकेगी पता नहीं,
पर बाँध लेगी अपनी बाँहों में बेसुध,
मोहब्बत सी हो गई जैसे
मेरे आँगन के पेड़ से।
 
डाल से डाल चलने लगे,
पात से पात हिलने लगे,
दो शरीर एक जान से
एक दूसरे मे वो मिलने लगे,
नहीं मिली अगर वजह,
पूछना उनका परिचय,
मेरे आँगन के पेड़ से।
 
कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते हैं,
वो मूक होते हैं,
अकल्पनीय किन्तु विस्तृत,
उस असीम प्रेम की तरह
उलझे हुए,
धूप, जाड़े और बारिश में,
मेरे आँगन के पेड़ से।
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-रवि पँवार

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